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Updated March 26th, 2019 at 22:48 IST

बिहार में जारी है सीटों वाला सितम, चुनाव से पहले बिहार में तकरार

कुल मिलाकर बिहार एक बार फिर राजनीति के केंद्र में हैं और बिहार के ये कद्दावर नेता अपने घटते कद तो लेकर कुंठा में भी हैं और हताशा में भी

Reported by: Ayush Sinha
| Image:self
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बिहार में नेताओं की सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि वो अपनी पसंद की सीट पर चुनाव लड़ना चाहते हैं जबकि पार्टियों ने गठबंधन की मजबूरी की वजह से उन्हें दूसरी सीट सौंप दी है। बीजेपी के गिरिराज सिंह ऐसे ही नेता हैं, जो बेगूसराय से टिकट दिए जाने से नाराज़ हैं। तो उधर मधेपुरा से चुनाव लड़ने के पप्पू यादव के ऐलान ने महागठबंधन की नींद उड़ा दी है।

कहते हैं देश की राजनीति का मिज़ाज और बदलता डीएनए समझना हो तो बिहार का रुख करना चाहिए। राजनीति में बिहार और बिहार में राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लेकिन बिहार की राजनीति के दो सबसे मजबूत सिक्के इन दिनों अपनी खनक से हार जीत का गणित बदलने में लगे हैं।

एक तरफ अपनी ही पार्टी से नाराज़ केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह हैं तो दूसरी तरफ महागठबंधन में जगह ना मिलने से ठगा महसूस कर रहे पप्पू यादव हैं। दोनों का पेंच उन सीटों को लेकर फंसा है जहां से वो चुनाव लड़ना चाहते हैं।

आपको सिलसिलेवार तरीके से पूरा माजरा समझाते हैं। 

गिरिराज सिंह जो फिलहाल बिहार की नवादा सीट से सांसद हैं, लेकिन इस बार पार्टी ने गिरिराज को बेगूसराय का टिकट थमा दिया है। नवादा और बेगूसराय के बीच की दूरी करीब 109 किलोमीटर की है और बारस्ता नवादा से बेगूसराय पहुंचने में 3 घंटे लग जाते हैं। लेकिन सवाल ज़मीनी दूरी का नहीं बल्कि राजनीतिक फासले का है।

इसे गिरिराज आत्मसम्मान बता रहे हैं तो कुछ लोग इसे उनका डर कह रहे हैं। लेकिन फिलहाल तो गिरिराज पार्टी प्रदेश अध्यक्ष के रवैये से आहत होने की दुहाई दे रहे हैं।

गिरिराज सिंह कोपभवन में हैं तो पप्पू यादव गठबंधन में जगह ना मिलने से बेचैन है और अब उन्होंने मधेपुरा से चुनाव लड़ने का ऐलान कर, गठबंधन को बेचैन कर दिया है। क्योंकि यहां उनका मुकाबला शरद यादव से होगा। 

आरजेडी दबाव डाल रही है कि पप्पू यादव इस सीट से चुनाव ना लड़े वर्ना पार्टी सुपौल में कांग्रेस की सांसद उनकी पत्नी रंजीत रंजन को समर्थन देने से पीछे हट सकती है।

कुल मिलाकर बिहार एक बार फिर राजनीति के केंद्र में हैं और बिहार के ये कद्दावर नेता अपने घटते कद तो लेकर कुंठा में भी हैं और हताशा में भी....

2014 के आंकड़ों को ही आधार मानें तो 2019 में एनडीए गठबंधन एक बार फिर यूपीए गठबंधन पर भारी पड़ता नजर आ रहा है। वर्तमान एनडीए में बीजेपी और एलजेपी के अलावा नीतीश कुमार की जद(यू) को 52 प्रतिशत वोट तो यूपीए (कांग्रेस+आरजेडी+लेफ्ट+RLSP+एनसीपी) को 36 % वोट मिलते दिखाई दे रहे हैं।

2014 के चुनाव में मुकाबला त्रिकोणीय था। जेडीयू, बीजेपी और आरजेडी गठबंधन ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था। इसका सीधा फायदा बीजेपी को मिला, बीजेपी ने एलजेपी और आरएलएसपी के साथ मिलकर 40 में से 31 सीटें जीत ली थीं। इस बार भी एनडीए को सबसे ज्यादा फायदा जेडीयू के साथ आने से हो रहा है।

2014 में जनता दल यूनाइटेड ने अकेले चुनाव लड़ते हुए दो सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि चार सीटों पर वो दूसरे नंबर पर और 29 सीटों पर तीसरे पायदान पर रही। जेडीयू के एनडीए में आ जाने से कांग्रेस की दो में से एक सुपौल सीट और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी की कराकट सीट पर भी एनडीए मजबूत दावेदारी पेश कर सकती है। 2014 की लोकसभा में आरएलएसपी ने दो सीटें जीती थीं।

अगर 2014 के आंकड़ों के आधार पर आंकलन करें और मौजूदा गठबंधन के वोटों को जोड़ दें तो 2019 में एनडीए गठबंधन बीजेपी की 22 में से 21, एलजेपी की छह और जेडीयू की दो सीटें बचा सकता है बल्कि लालू यादव की आरजेडी (राष्ट्रीय जनता दल) की जीती अररिया, बांका, भागलपुर और मधेपुरा सीटों पर भी खतरा बन सकते हैं। 2014 में आरजेडी ने 40 में से सिर्फ इन 4 सीटों पर जीत हासिल की थी।

इन सब समीकरणों के बावजूद अगर नीतीश कुमार और बीजेपी एक-दूसरे को अपने वोट ट्रांसफर करवाने में कामयाब रहे तो एनडीए को 40 में से 35 सीटों पर कामयाबी मिल सकती है। हालांकि इनमें से दस सीटों पर मामला काफी नजदीकी है। यहां के जातीय समीकरण और उम्मीदवारों का चयन भी एक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।

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Published March 26th, 2019 at 22:23 IST

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